Monday, March 30, 2009

आज मेरा नया जन्म हुआ...............

कैसे ? क्योंकि आज मैंने उपनयन संस्कार अर्थात जनेऊ धारण किया ,क्या हैं ये उपनयन संस्कार व इसका क्या महत्व हैं व हमे क्यों इसे धारण करना ऐसे hi प्रश्नो का जवाब ..................
उपनयन संस्कार
सोलह संस्कारो में यह संस्कार अपना विशिष्ट स्थान रखता हैं मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया एक प्रकार से यही से प्रारम्भ होती हैं अब तक बालक "ekaj" की संज्ञा से परिभाषित था अर्थात जिस प्रकार पहले अंडे का जन्म होता हैं और उसके पककर फूटने पर नया चूजा निकलकर दूसरा जन्म होकर पक्षी "द्विज" की संज्ञा पाकर संपूर्ण नभांचल मैं उन्मुक्त उड़न हेतु स्वंतत्र होता हैं उसी प्रकार बालक भी माँ की कोख से जन्म लेकर अब आचार्य के ज्ञान गर्भा मैं प्रविष्ट होकर संपूर्ण विद्या अध्यन को अग्रसर होता हैं
yagyopavit नामक तीन सूत्रों से निर्मित यह डोरी ठीक वो ही रचना होती हैं जैसी गर्भस्थ शिशु को माँ से जोड़ने वाली नाभि नाल की होती हैं नाभि नाल द्वारा भ्रूण माँ से भौतिक शरीर की पुष्टि हेतु पोषण प्राप्त करता हैं और यज्ञोपवित के भावनात्मक संबध से किशोर युवावस्था तक लौकिक व परलौकिक जीवन की श्रेष्ठता हेतु आचार्य से पोषण प्राप्त करता हैं
शाब्दिक अर्थ
उप=निकट & नयन=ले जाना
अर्थात निकट ले जाना भाष्य ज्ञान , कर्म ,उपासना ,धर्म ,कर्तव्य,व आचार्य,गुरु ,उपाध्याय ,व अन्ततोगत्वा परम पिता परमात्मा के निकट ले जाने वाला संस्कार
vibhinn नाम
- विद्या सूत्र,यज्ञ सूत्र,ब्रह्म सूत्र ,सावित्री सूत्र,यज्ञोपवित,janaiu, triki , द्विजयानी
जिस प्रकार नेत्र मुखमंडल पर स्थित हैं किंतु हमसे दूरस्थ वस्तु का ,व्यक्ति को विवेकपूर्ण ढंग आकर-प्रकारें मन-मस्तिष्क में परिचित करता हैं अतः इसे भी नयन कहते हैं
आर्य जाती (Hindu) के पहिचान (parichay)- शिखा ,मेखला ,दंड इसमे सर्वोपरि चिह्न (bahya) सूत्र हैं
उपनयन-उपनेत्र ,नयनक ,अयानक,चश्मा ,लेंस,
जिन्हें स्पष्ट नही दीखता उन्हें चश्मा लगाने की आवश्यकता हैंकिंतु जिन्हें स्पष्ट दिख्तौन्हे इसकी आवश्कता नही होती हैं ठीक उसी प्रकार शिशु व संयंसी को उपनयन की आवश्यकता नही होती हैं
जनेऊ यह पवित्र धागा ,आज के स्कूल उनिफोर्म की तरह ब्रह्मचारी का प्राचीन सांस्कृतिक चिह्न हैं इस धागे के तीन सूत्र हैं जिनके kramash तीन महान उद्देश्य ब्रह्मचारी को सन्यास आश्रमी बनने तक अपने जीवन पथ पर श्रेष्ठाचार से अग्रसर होने की प्रेरणा करते हैं
1.ऋषि ऋण -
ved विद्या के अध्यन का परिचायक प्रथम सूत्र हैंऋषियों मनीषियों के अथक श्रम से हमे ज्ञान ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं ,उनके आभाव मैं हम निरे मुर्ख ही रह जाते उनके वेड ,उपनिषद ,ब्रह्मण ग्रन्थ ,व् दर्शनों को पढ़ना व् पढ़कर ही हम ऋषि ऋण से उरिन हो सकते हैं_
२.पितृ ऋण -
माता, पिता ,ज्येष्ठ ,भरता,बहिन ,chaacha,चाची,मामा,मामी,श्वसुर,साँस,व् सभी श्रेष्ठ, व जेष्ठ कौटुम्बिक जन हमारे pitrgan या पित्तर या पूर्वज (purva=pahle,ja=janme) हैंएन सभी की श्रेष्ठता पूर्वक मनोयोग से सेवा करना ,इन्हे संतुष्ट कर तृप्त करना ही श्राद्ध वतर्पण हैं और एसा करते हुए उत्त्मोतुम संताने उत्त्पन्न करके परम्परा को आगे बढ़ने से ही हम पितृ ऋण से छुट सकते हैं
३.-देव ऋण-
जो केवल देता ही हैं बदले मैं लेता नही हैं ,जो एइसे दिव्या गुणों से विभूषित हैं ,जो हम्मे नही ,इन सभी को देव या देवता कहते हैं + देव दो प्रकार के होते हैं जड़ व चेतन देव जड़ देवो मैं सूर्य,चंद्र,नक्षत्र,पञ्च महाभूत, आदि आते हैं,तथा चेतन देवो मैं पृथ्वी के सभी विद्वान,महान संत व स्वजन यहता"मात्र देवो भवः......अतिथि देवो भवः"का समावेश होता हैं
एन सभी दिव्या जानो का shrdhabhav से सम्मान करते हुए इन्हे bhlibhati संतुष्ट करने व योग्य ज्ञान को प्राप्त करने व कराने से ही हम देव ऋण से उरिन हो सकते हैं
उपसंहार -
आज के भौकितावादी युग me jb हम नाना प्रकार का अलंकरण से सज-धज कर घूमते फिरते हैं नाना प्रकार की सुविधाए जुटाकर उनके बोझ से बोझिल रहते हैं उन्हें maintain करते हैं तो हमे यह अत्यल्प वजनी श्रेष्ठ सूत्र हमारे शरीर पर अवश्य रखना चाहिए
बाज़ार से माँ की दावा लाना ,यह याद दिलाएगा ,श्रेष्ठ धार्मिक पुस्तक पढने को प्रेरित करेगा ,यह प्रेरित करेगा की एक अदद वृक्ष अपने जीवन मैं लगा दू ,यह प्रेरणा कर सकता और जीवन के भंवर मैं संभवतया भटकने से रोक सकता मैं भी सहायक सिद्ध हो सकता हैं
आप भी अगर यह संस्कार करवाना चाहे तो अब भी करवा सकते हैं क्यांकि मैंने भी अभी २४ vअर्श की आयु मैं करवाया पहले इसका ज्ञान नही था पर जब जगे tab hi ही सवेरा अब तक जो भी पाप जाने उन्जाने मैं हुए सो हुए पर कम से कम आने वाला कल तो सुधर ही जाएगा और हो सकता हैं पूर्व के पापो का प्रायश्चित भी हो जाए
-डॉ संजय माहेश्वरी
29 march रविवार
Udaipur
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